<no title>लाख टके का सवाल क्या असंतुष्ट नेता कांग्रेस को गांधी परिवार के नेतृत्व से मुक्ति दिला पाएगें

कांग्रेस ने सीडब्ल्यूसी की वर्चुअल बैठक में सोनिया गांधी को एक बार फिर अंतरिम अध्यक्ष बना कर यह संदेश तो दे दिया कि पार्टी किसी भी असंतुष्ट की नाराजगी के दबाव में आकर कोई फैसला नही लेती है और न ही लेगी। पार्टी को जो भी फैसला लेना होता है वह दबाव में नही लेती है। पर कांग्रेस के पास इस बात का कोई जवाब नही है कि आखिर ये नौबत पैदा ही क्यूं हुई और हुई भी तो इसके कारणों को नजरअंदाज क्यूं किया गया। लाख टके का यह सवाल आज हर आम और खास इंसान के जैहन में उठ रहा है।


बहरहाल जिस तरह से असंतुष्टों ने कांग्रेस को गांधी परिवार से मुक्ति दिलाने का जो झंड़ा उठाया है वे अपने मकसद में कितना कामयाब हो पाएगें ये सवाल भी उभर कर सामने आया है। काबिले तारिफ बात तो ये है कि सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष चुनने के बाद भी असंतुष्टों ने हिम्मत नही हारी और सोनिया की बैठक के बाद बैठक बुलाई। 


रविवार और सोमवार दो दिन की कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक की चर्चाएं प्रिंट मीडिय़ा से लेकर खबरिया चैनलों और विपक्षी पार्टियों के बीच हर जगह छाई रही लेकिन मंगलवार की सीडब्लूसी की बैठक की चर्चा के बजाए एक दूसरी ही बैठक की चर्चा खबरों में बनी रही। वो बैठक, जो वर्किंग कमेटी की बैठक के ठीक बाद कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद के घर पर हुई।


इस संबंध में जो खबरें बाजार में छन कर आई है वे साफ बयां करती है कि कांग्रेस में नेतृत्व पर जिनने सवाल उठाते हुए चि_ी लिखी गई थी, वह बैठक उसमें दस्तखत करने वालों की ही थी। जाहिर है, बैठक के बाद जब दूसरी बैठक होती है, तो पहली बैठक का जिक्र होता ही है, चर्चा भी होती है, और इस बैठक में भी हुई होगी।


सबसे मजेदार बात तो ये है कि जो भी नेता असंतुष्ट है वे हरगिज बागी नही है। यह कहना गलत नही होगा कि सोनिया गांधी को चि_ी लिखने वाले सभी नेता पार्टी के साथ हैं, लेकिन वे कुछ बदलाव चाहते हैं।


 हमने तीन दिन तक जिस तरह का परिदृश्य देखा उससे साफ जाहिर होता है कि पार्टी में कुछ नेताओं को इस बात पर आपत्ति है कि जब राहुल गांधी अध्यक्ष नही है फिर भी उनकी 100 में से 70 बात आज भी मान ली जाती है तो फिर खुल कर कमान क्यूं नही संभाल लेते है। वे अध्यक्ष नही होने के बाद भी वास्तव में अध्यक्ष ही बने हुए है। हर मुद्दे पर वीडियो बना रहे हैं। लेकिन आज पार्टी में राहुल का रोल क्या हो, ये बात अधर में अटकी है, वो ना खुद अध्यक्ष बन रहे हैं और ना दूसरे को बनने दे रहे है।



ये बात ज्यादा दिन तक कैसे चल सकती है। इसलिए पार्टी अध्यक्ष पद के लिए चुनाव होना ही चाहिए। असंतुष्टों का स्पष्ट मानना है कि अगर राहुल गांधी आज भी पार्टी अध्यक्ष  के पद के लिए अपना मन बना ले तो वो बिना किसी मुश्किल के दोबारा अध्यक्ष बन सकते हैं। सोमवार को जो कुछ हुआ उससे सोनिया गांधी को भी एक मोहलत मिल गई है, ताकि पार्टी में जो रायता फैला है उसे समेट लिया जाए। इतना ही नही इस तरह के एपिसोड से सोनिया को भी पार्टी में नेताओं की अपेक्षा का भान हो जाना चाहिए।


इसके बाद से यह बात भी होने लगी है कि पार्टी के लिए आगे की राह क्या हो? इस पर आम राय वही होनी चाहिए, जो चि_ी में सुझाव दिए गए हैं। पार्टी का एक फुल टाइम अध्यक्ष, कांग्रेस वर्किंग कमेटी और संसदीय बोर्ड का दोबारा गठन, यही वो काम हैं, जो पार्टी की प्राथमिकता में होने चाहिए। अब इसमें काबिलियत और अनुभव दोनों के सही मिश्रण का भी होना खासा जरूरी है।


सनद रहे कि कांग्रेस पार्टी के संविधान के मुताबिक हर नए अध्यक्ष के चुनाव के लिए सीडब्ल्यूसी का गठन होना चाहिए लेकिन पिछले एक साल से सोनिया गांधी ही पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष है, इस वजह से ये नही हो पाया। कांग्रेस वर्किंग कमेटी में कुछ लोग चुनाव से आते हैं, कुछ मनोनीत होते हैं और कुछ स्पेशल इन्वाइटी होते है। 2017 में राहुल गांधी पार्टी के अध्यक्ष बने थे। उस वक्त उनका चुनाव निर्विरोध हुआ था। 2019 में लोकसभा चुनाव के बाद पार्टी की हार की जिम्मेदारी देते हुए उन्होंने इस्तीफा दे दिया था। उसके बाद से कांग्रेस में अध्यक्ष पद पर चुनाव नहीं हुआ। 1998 से 2017 तक सोनिया गांधी पार्टी की अध्यक्ष रही थी।


अब ऐसे में सवाल उठता है कि चि_ी भी लिख दी, पार्टी की वर्किंग कमेटी की बैठक भी बुला ली, कांग्रेस का अंतरिम अध्यक्ष भी चुन लिया, अब आगे क्या? क्या छह महीने में सब शांत हो जाएगा, दूध की उबाल की तरह, या फिर आंच धीमी कर उसे और उबाला जाना अभी बाकी है?


ऐसे में अटकलें लगाई जा रही है कि क्या असंतुष्ट नेताओं के खेमें में से कोई नेता पार्टी के अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ सकता है। क्या गुलाम नबी आजाद आने वाले समय में पार्टी में गैर-गांधी अध्यक्ष का चेहरा हो सकते हैं। हालाकि इस बात से कोई इत्तेफाक रखता है तो कोई नाइत्तेफाक भी।


सब दारोमदार तो राहुल गांधी पर ही आकर टिकता है। गर राहुल गांधी दोबारा अध्यक्ष बनने के लिए तैयार हो जाते है तो बात और होगी, लेकिन अगर गांधी परिवार ने ही कांग्रेस में अपने किसी पुराने वफादार को अध्यक्ष पद के लिए चुनाव में उतारा तो बहुत संभव है कि पार्टी के असंतुष्ट नेताओं में से कोई उस उम्मीदवार को टक्कर देने के लिए सामने आए। ऐसे में वो चेहरा गुलाम नबी आजाद का भी हो सकता है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। वो यूथ कांग्रेस में रहे हैं, जम्मू- कश्मीर में मुख्यमंत्री रहे हैं, कई बार केंद्र में मंत्री रहे हैं, फिलहाल राज्यसभा में पार्टी का चेहरा है। अनुभव और काबिलियत दोनों पैमानों पर उनका कद पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए कमजोर नहीं हैं।


फिलहाल पार्टी को एक चुनाव वाली सर्जरी की आवश्यकता है लेकिन उसके लिए जरूरी है कि परिस्थितियां अनुकूल हों। जैसे किसी इंसान की सर्जरी के पहले ये देखा जाता है कि उसको ब्लड प्रेशर तो नहीं, किडनी की, लीवर की दिक्कत तो नहीं। अगर ऐसी कोई दिक्कत सर्जरी के वक्त होती है तो डॉक्टर दवा देकर थोड़े दिन मर्ज को ठीक करने की कोशिश करता है। ठीक वैसे ही पार्टी में अध्यक्ष पद के लिए चुनाव कराने के लिए फिलहाल वातावरण अनुकूल नहीं है। छह महीने के वक्त में वो दवा पार्टी को दी जा सकती है और फिर चुनाव कराए जा सकते है। अगर तुंरत चुनाव हुए तो गुटबाजी बढऩे का खतरा हो सकता है।



इस समय पार्टी के अंदर एक अलग धड़ा भी बन गया है। इससे नुकसान होने की संभावना ज्यादा है। अभी कोई भी निर्णय लिया गया तो एक तीसरे विकल्प को ध्यान में रख कर लेना पड़ेगा। यह किसी से छुपा नही है कि सोमवार की बैठक में कोई सुलह  नही हुई है। दोबारा बैठक करने का मतलब ये है कि असंतुष्ट नेताओं की तरकश में अब भी कई तीर हैं। कल जो हुआ वो पहला राउंड था। लड़ाई लंबी भी चल सकती है।


इस मौके पर वीपी सिंह को याद करना उचित ही होगा। जब वीपी सिंह को रक्षा मंत्री के पद से हटाया गया था, तो उन्होंने सीधे पार्टी नहीं छोड़ी थी, अंदर ही अंदर पार्टी को क्षति पहुंचाई थी, फिर जनमोर्चा बनाया था और बाद में जनता दल के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। गर ताजा-ताजा कोई भी फैसला लिया गया तो ठीक उसी तरह के समीकरण आने वाले दिनों में बनते देखे जा सकते हैं।


बहुत मुमकिन है कि कांग्रेस के निकले दल, जैसे शरद पवार हों ममता बनर्जी हों या फिर जगन रेड्डी हों - इनसे असंतुष्ट कांग्रेस नेताओं का खेमा एक साथ आने की पहल कर सकता है। इस संभावना को नकारना भी बेवकुफी ही होगी कि इस तरह का शह-मात का खेल भी पर्दे के पीछे चल रहा हो। सीडब्लूसी के बाद की बैठक इसी ओर इशारा करती है।


फिलहाल ये संभावना दूर की कौड़ी लग सकती है, लेकिन इन नेताओं की भारत की राजनीति में अपनी अलग पहचान है, अपना वजन है, इसमे दो राय नहीं है। अपने-अपने क्षेत्र में चुनाव जीत कर तीनों नेताओं ने खुद को साबित भी किया है। वैसे भी गुलाम नबी आजाद की सभी पार्टी नेताओं के साथ ट्यूनिंग अच्छी है। विपक्ष को राज्यसभा में एकजुट रखने में भी कई बार आजाद ने पहल की है, ये हमने देखा है। फिर कपिल सिब्बल भी उनके साथ है, जिन्होंने पार्टी से इतर जाकर दूसरे राजनीतिक दलों के लिए कोर्ट में केस लड़ा है। मनीष तिवारी भी उनके साथ है।


इसके अलावा एक बात और भी है कि चि_ी पर भले ही 23 नेताओं ने दस्तखत किए हो, लेकिन कई और नेता हैं जो पार्टी में इन नेताओं के समर्थन में आ सकते है। ऐसे में राजनीति में किसी भी संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता है।


जिन नेताओं ने चि_ी लिखी अभी तक उन्हें बुला कर पार्टी नेतृत्व ने अलग से बात नहीं की है। इसकी उनको आस भी रही होगी। ध्यान देने वाली बात ये है कि चि_ी लिखने वालों में तीन तरह के नेता हैं- एक वो, जिन्हें पार्टी में जो कुछ मनमाने ढंग से चल रहा है उसका दुख है। दूसरे वो नेता हैं, जिन्हें राहुल के साथ काम करने में हिचकिचाहट है और तीसरे वो कांग्रेसी नेता है जो वाकई में पार्टी को नुकसान पहुंचाना चाहते हैं, जिसको लगता है कि पार्टी में उनका अच्छा नहीं हो रहा है।


अगर पार्टी नेतृत्व इनके खिलाफ कोई कार्रवाई करने का फैसला लेती है तो हो सकता है कि असंतुष्ट नेता कोर्ट का सहारा ले। गुलाम नबी आजाद के घर हुई बैठक में इस पर भी चर्चा हुई हो कह नही सकते है।
हालाकि इस बात की संभावना कम ही होती है कि पार्टी के अंदरूनी संविधान को कोर्ट में चैलेंज किया गया हो।


फिर सवाल ले देकर यही है कि क्या कांग्रेस, अब पुरानी कांग्रेस नहीं रह जाएगी? वहां पहले जैसे कुछ नहीं रहेगा। इस बात के जवाब के लिए हमें थोड़े पीछे चलना होगा। बात 2014 लोकसभा चुनाव के बाद की है। कांग्रेस की हार हुई थी और हार पर समीक्षा के लिए टीवी पर डिबेट शो चल रहा था। जाहिर है कांग्रेसी हार से हताश थे, लेकिन टीवी स्क्रीन पर उसका कैसे इजहार करते।


टीवी डिबेट के दौरान एक कांग्रेसी नेता ने कहा था कि देश में कांग्रेस पार्टी एक डिफॉल्ट ऑप्शन की तरह है। भले ही उस वक्त कांग्रेस के नेता ने ये बात अपनी पार्टी के लिए कही थी लेकिन जिस नेतृत्व संकट के दौर से कांग्रेस पार्टी इस वक्त गुजर रही है, उसमें ये कहना गलत नही है कि गांधी परिवार भी पार्टी में डिफॉल्ट ऑप्शन ही बन कर रह गया है। जब कहीं से कोई नहीं मिलता, तो पार्टी की कमान अपने आप ही गांधी परिवार के हाथ में चली जाती है। अब समय सोचने का आ गया है कि आखिर यह कितना उचित है।


हालाकि इस बार पार्टी के अंदर इस डिफॉल्ट सेटिंग को बदलने की एक कोशिश हुई है। पर कोशिश कितनी कामयाब होगी यह अभी वक्त के गर्भ में ही है। इसके लिए एक बार फिर 6 महीने और इंतजार करना पड़ेगा।


लेकिन इतना जरूर है कि अगर ये कोशिश सफल हुई तो पार्टी का स्वरूप बदल जाएगा और विफल हुई तो पार्टी के अंदर असंतुष्टों का एक बड़ा कुनबा तैयार हो जाएगा। इसके इतर एक अशंका यह भी है कि फिर पार्टी में दोबारा ऐसी हिम्मत अगली बार कब होगी और कौन करेगा। इस तरह से अपनी बात रखने वाले नेताओं को कितना वक्त लगेगा, ये बता पाना मुश्किल ही होगा।


बहरहाल कांग्रेस और उसके नेताओं का भविष्य जो भी हो लेकिन इस समय फिजा में एक बात बड़ी तेजी से बह रही है कि ये पार्टी कहां से कहां आ गई है।